Friday, March 26, 2010
Wednesday, March 17, 2010
The darker shade with a bright hue
हमने दरवाज़े से डॉक्टर को आते देख लिया था. हम आखिरी बिस्तरे पे थे . "हमारे पास पहुँचने में वक़्त लगेगा," हमने अनुमान लगाया, और डॉक्टर की ओर पीठ कर लेट गए. आँखें बंद थीं, पर कान उनके पद चाप पर ही लगे थे .
बड़ी उम्मीदों से यहाँ आये हैं , पर पता नहीं यहाँ भी कुछ हो पायेगा या नहीं. .ऐसा लगता था मानो प्राण की डोर पिछले शहर में उन डॉक्टर के पास ही छूट गयी हो. पता नहीं यहाँ के डॉक्टर कैसी देख भाल करेंगे ? दिल धड़क रहा था .बड़ी घबराहट हो रही थी. फिर सब कुछ दुबारे से यहाँ शुरू होगा ,सोंच कर ही दिल बैठा जा रहा था.
इस हॉल में ये ढिबरी के सामान बल्ब क्यों टिमटिमा रहे थे? सारा माहौल ही मरियल सा था. ऐसे ही दीखते हैं सब नेफ्रोलोजी डिपार्टमेंट . यहाँ सब थके हारे से ही तो दिखते हैं. औरों का तो पता नहीं, पर हमें अपना हर कदम उठाना मन मन भर का लगता था .शायद औरों को भी लगता हो!
शायद किसी ने नाम पूछा अंग्रेजी में. आदतन हमने अंग्रेजी में जवाब देते हुए पलट कर देखा. डॉक्टर खड़े मुस्करा रहे थे. वो दक्षिणी भारतीय डॉक्टर खुश दिखते थे. उन्हें मेरे साथ टूटी फूटी हिंदी नहीं बोलनी पड़ेगी, शायद ये सोंच . पहली परीक्षा हमने पास कर ली थी अपने नए डॉक्टर के साथ.
सचमुच अद्भुत थे डॉक्टर जोर्जी. हँसमुख ,मिलनसार . नाश्ता करने कैंटीन आते तो नाश्ता भूल पेशेंट के टेबल पर बैठ उसका लेखा जोखा शुरू कर देते थे. हमने ऐसा कभी देखा सुना नहीं था. बड़ा अच्छा लगता था. कुछ ही दिनों में हमारे लिए भी वो देवता सामान ही बन गए थे .
उन दिनों अजब सी हवा चली हुई थी पूरे देश में. अखबारों में रोज़ सुर्ख़ियों में ख़बरें रहती थी ओरगन ट्रांसप्लांट दुरुपयोगों की. डॉक्टर गण भी सहमे हुए से थे. नया कानून बनाने की बात चल रही थी. हर प्रदेश में जनता द्वारा चुने नुमाइंदे असेम्ब्ली में बहस चला रहे थे. "ओरगन ट्रांसप्लांट जीवन देता है. पर अगर इस कानून का दुरूपयोग हो तो? निर्दोशियों की जानें भी जा सकती है." ये था मुद्दा.
हमारे अपने शहर ने पहल की थी और नया कानून आ चूका था. सिर्फ रिश्तेदार ही अपने ओरगन दान दे सकते थे.
यदि मैच ना करे तो? शायद दुआ ही रह जायेगी जब तक काम आ जाए! या फिर काडीवर प्रत्यारोपण भी एक रास्ता था. पर देश इसके लिए अभी बिलकुल तैयार नहीं था. इतने बड़े देश में लागू करने के लिए बहुत बरसों की तैयारी चाहिए होती है. ये गर्भावस्थ शिशु के सामान था जिससे उम्मीद की जा रही थी की माँ की गोद में आते ही दौड़ पड़े .
सो उस वक़्त तो हम भी अपने शहर से दौड़ पड़े थे अगले शहर की ओर, क्योंकि वहां अभी असेम्ब्ली में बहस चालू हुई नहीं थी. पता चला आज एक विदेशी का गुर्दा प्रत्यारोपण चल रहा है. बड़ी ख़ुशी हुई मन को . चलो सही जगह पहुँच गए हैं. भगवान ने चाहा तो यहाँ काम बन जाएगा, हमारी आस बंधी थी.
हमने सोंचा था हम अपने शहर में छोड़ आये हैं, पर पता नहीं था हमारी किस्मत हमारे साथ ही चल रही थी! अभी तक तो दिल को सुकून देने जैसी कोई बात होती दिख नहीं रही थी.
हमारा इलाज़ तो शुरू हो गया था पहुँचते ही . गुर्दा दाता भी मिल गया था. पर ये तो वो ही शहर निकल गया जहां फलां डॉक्टर ने किसी गरीब का अप्पेंडिक्स हटाते वक़्त उसका एक गुर्दा भी निकाल लिया था. सो हमारी ज़िन्दगी में एक पहलू का और इज़ाफ़ा हो गया. हम और हमारे पति प्रेस कांफेरेंस और अख़बारों में फँस चुके थे. पतिदेव परेशान थे.
जब तक सारे मरीज़ और उनके परिवार डायलिसिस के बाद राजनैतिक गलियारों के भूल्भुलैये में चक्कर काट रहे थे तब तक असेम्ब्ली में बिल पारित हो गया. मुख्यमंत्री का दिया आश्वासन कोई काम नहीं आया . अंत में जाकर उस शहर के अस्पतालों की कहानी ये ठहरी कि वो विदेशी ही आखिरी किस्मत वाला निकला उस शहर में.
अब हम दोनों परेशान थे, आगे क्या किया जाए. घर में बच्चे घबरा रहे थे. उनसे भी ज्यादा शायद मेरे मम्मी पापा. रोज़ फ़ोन पर घर वापस आने की सलाह मिल रही थी. हम रोते अकेले में तो पब्लिक बूथ में पतिजी टैक्सी रुकवा देते और घर का नंबर लगा देते थे. हम आँसू पोंछते और फ़ोन पे कहते, "सब कुछ बढ़िया है. हमें और कोशिश करनी है." पापा मम्मी चुप हो जाते.
हमारे पति में एक बहुत बड़ा गुण है. वो मेरी अनकही बातें भी समझ लेते हैं . अगले दिन उन्होंने कहा "अगला डायलिसिस अकेले संभाल सकोगी?"
कायदे से झेलना तो मुझे ही पड़ता था. पर शायद इन्होने मुझसे बहुत ज्यादा झेला है. मैं समझती हूँ किसी अपने को तकलीफ में देखने का दुःख ज्यादा त्रासदीपूर्ण होता है. उसे झेलना काफी मुश्किल होता है. मेरा आश्वासन पा इन्होने उसी शाम तीसरे शहर का रुख किया. एक बार फिर उम्मीदें बंधी थीं .
दो दिनों बाद हमने ये शहर रात के अँधेरे में चुपके से छोड़ा था. क्या बताते डॉक्टर को? यहाँ इलाज नहीं करवाना है .सो अस्पताल के कागज़ वहीँ रहे. नए शहर से बड़ा आश्वासन मिला था. हम इसे सिर्फ कुछ कागजों के लिए खोना नहीं चाहते थे.
यहाँ से निकलने के बाद यहाँ फिर से वापस आने का रास्ता बंद हो जाने वाला था. यदि वापस आना पड़ा तो काफी जवाब तलबी होगी हमारी.क्योंकि कोई विश्वास नहीं करता हमारे खतरा लेने की क्षमता पर. काफी सहमें हुए थे हम. अपने साथ हमारे संभावित जीवन दाता यानि गुर्दा दाता को भी ले चले. अब अगला शहर हमारा आखिरी सहारा था. अगर तीसरे शहर से भी खाली हाथ लौटना पड़ा तो? हमारा फिर कुछ नहीं होगा, हमने समझ लिया था . घर लौटेंगे खाली हाथ.
जब जनता के रक्षकों को इतनी कम जानकारी में इतने बड़े बड़े निर्णय लेने होतें हैं तो ऐसा ही होता है. एक के बाद एक हर प्रदेश में फरमान जारी हो रहा था "सिर्फ कैडेवर ट्रांसप्लांट हो पायेगा या रिश्तेदारी में.!" ......
उन्होंने सिर्फ हुक्म नामा ज़ारी किया. देश में क्या तैयारी थी कैडेवर ट्रांसप्लांट की? शून्य!! कोई फर्क नहीं पड़ता !
तो अभी जो हज़ारों लोग अस्पताल में उम्मीद लगाए बैठें हैं ,उनका क्या होगा? जवाब तो है.
" कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है! "
तो चलो हम भी मन ही मन तैयार हो रहे थे खो जाने के लिए.
यह दूसरी बात होगी कि जब उन्हें अपनी गलती का एहसास होगा तो उस आदेश को वापस कर देंगे.
भाई मेरे, सब समय की बात होती है. आप सिर्फ गलत समय में थे. और ये ही असली सच है. या तो आपका समय सही है या आपका समय गलत है. यह ज्ञान हमने अपने बाल पका के हासिल किया है. पर उस वक़्त हमारे बाल पके नहीं थे. हमें काफी कम ज्ञान था.
इस तीसरे अस्पताल में माहौल बढ़िया था. लगता था मनो हम सफल हो जायेंगे. पर अब हम आश्वस्त थे हमारी किस्मत हमारे साथ चल रही थी. पता नहीं ये क्या गुल खिलाने वाली थी.
अपने साथी के बिना तो हमारी कोई बिसात ही नहीं थी. सो जी जान से हम अपने जीवन दाता को लिए घूम रहे थे. उसकी हर इच्छा हमारे लिए खुदा का हुक्म था. एक सुबह उसने कहा "हमारी माँ बीमार है अब हम तो अपने गाँव चले. " पोस्ट ऑफिस से जब उसने अपनी माँ को ढेर सारे पैसे भेजे तो उसने चैन की सांस ली और हमने भी.
दूसरे ही सुबह डॉक्टर ने कहा, "कल से यहाँ भी असेम्ब्ली में बहस शुरू होगी. अब दिल्ली एम्स से रिपोर्ट का इंतज़ार नहीं कर सकते. आज पेशेंट को आखिरी डायलिसिस में डालना होगा. कल ऑपरेशन करेंगे .नया गुर्दा लगायेंगे."
हमने अपने सितारों को धन्यवाद दिया. सबसे पहले इसलिए की हमारा गुर्दा दाता हमारे साथ था, अपने गाँव में नहीं. पर मन विश्वास नहीं कर पता था की वो घड़ी पहुँच रही थी, जो हमें सबों के बीच रहने के लिए कुछ और बरसों की मोहलत देने वाली थी .पर अंग्रेजी में एक कहावत है ना?
"There could be a thousand slips between the cup and the lips." या ऐसा ही कुछ?
सो हम दोनों का पूरा परिवार दम साधे हुए था. टिकट उन्होंने बुक करवा लिए थे. और लोग पहुँचने भी लगे थे अस्पताल.
डायलिसिस के बाद हमारे पास मनः चिकित्सक आये . जानना चाहते थे की हम किस मनः स्थिति में थे?
हम नहीं समझते की किसी भी ऑपरेशन के पहले कोई पेशेंट इतना खुश हो सकता है की जश्न मनाने का दिल करे! ......सिवाय प्रत्यारोपण पेशेंट के ...... लगता था मानो लौटरी निकल गयी हो......
सो हमने कहा "उम्दा मनः स्थिति में हैं डॉक्टर साहब."
सच पूछा जाए तो डॉक्टर साहब को ऑपरेशन करना है वो जाने . हमें थोड़े ही करना है. सब सही रहा तो इस ऑपरेशन से निवृत्ति पाने के बाद दर्द ख़ुशी ख़ुशी झेल लेंगे.अभी जिस स्थिति में हैं उससे और बुरा क्या हो सकता है ?
सचमुच जीवन क्या नहीं सिखाता. वरना खून की एक बूँद देख कर चीखने वाले हम, पता नहीं कब और कैसे इतने सयाने हो गए थे .
ऑपरेशन हुआ और हम ख़ास से "आप के समान" आम जनता में शामिल हो गए. पर शायद दिल से आम होने में काफी वक़्त लगा. वर्ना आपने हमारा ये ब्लॉग बहुत पहले पढ़ा होता.
इन मरीजों की ज़िन्दगी की डोर औरों के हाथों में है. वे जानते हैं कि उनकी ज़िन्दगी किसी और के दान पर निर्भर है. और दान माँगा नहीं, दिया जाता है. हमें इन मरीजों के प्रति अत्यंत संवेदनशीलता बरतनी चाहिए, सबों से ये हमारी दिली गुज़ारिश है.
इस ब्लॉग से हम अपने जीवन दाता को फिर से एक बार धन्यवाद् देना चाहते हैं. वो नहीं जानता उसने हमारे लिए क्या किया है! इस ब्लॉग को लिखते वक़्त हमारी नतनी हमारे पास बैठी खेल रही है, जो हमने एक समय, कभी सपने में भी उम्मीद नहीं की थी.
बड़ी उम्मीदों से यहाँ आये हैं , पर पता नहीं यहाँ भी कुछ हो पायेगा या नहीं. .ऐसा लगता था मानो प्राण की डोर पिछले शहर में उन डॉक्टर के पास ही छूट गयी हो. पता नहीं यहाँ के डॉक्टर कैसी देख भाल करेंगे ? दिल धड़क रहा था .बड़ी घबराहट हो रही थी. फिर सब कुछ दुबारे से यहाँ शुरू होगा ,सोंच कर ही दिल बैठा जा रहा था.
इस हॉल में ये ढिबरी के सामान बल्ब क्यों टिमटिमा रहे थे? सारा माहौल ही मरियल सा था. ऐसे ही दीखते हैं सब नेफ्रोलोजी डिपार्टमेंट . यहाँ सब थके हारे से ही तो दिखते हैं. औरों का तो पता नहीं, पर हमें अपना हर कदम उठाना मन मन भर का लगता था .शायद औरों को भी लगता हो!
शायद किसी ने नाम पूछा अंग्रेजी में. आदतन हमने अंग्रेजी में जवाब देते हुए पलट कर देखा. डॉक्टर खड़े मुस्करा रहे थे. वो दक्षिणी भारतीय डॉक्टर खुश दिखते थे. उन्हें मेरे साथ टूटी फूटी हिंदी नहीं बोलनी पड़ेगी, शायद ये सोंच . पहली परीक्षा हमने पास कर ली थी अपने नए डॉक्टर के साथ.
सचमुच अद्भुत थे डॉक्टर जोर्जी. हँसमुख ,मिलनसार . नाश्ता करने कैंटीन आते तो नाश्ता भूल पेशेंट के टेबल पर बैठ उसका लेखा जोखा शुरू कर देते थे. हमने ऐसा कभी देखा सुना नहीं था. बड़ा अच्छा लगता था. कुछ ही दिनों में हमारे लिए भी वो देवता सामान ही बन गए थे .
उन दिनों अजब सी हवा चली हुई थी पूरे देश में. अखबारों में रोज़ सुर्ख़ियों में ख़बरें रहती थी ओरगन ट्रांसप्लांट दुरुपयोगों की. डॉक्टर गण भी सहमे हुए से थे. नया कानून बनाने की बात चल रही थी. हर प्रदेश में जनता द्वारा चुने नुमाइंदे असेम्ब्ली में बहस चला रहे थे. "ओरगन ट्रांसप्लांट जीवन देता है. पर अगर इस कानून का दुरूपयोग हो तो? निर्दोशियों की जानें भी जा सकती है." ये था मुद्दा.
हमारे अपने शहर ने पहल की थी और नया कानून आ चूका था. सिर्फ रिश्तेदार ही अपने ओरगन दान दे सकते थे.
यदि मैच ना करे तो? शायद दुआ ही रह जायेगी जब तक काम आ जाए! या फिर काडीवर प्रत्यारोपण भी एक रास्ता था. पर देश इसके लिए अभी बिलकुल तैयार नहीं था. इतने बड़े देश में लागू करने के लिए बहुत बरसों की तैयारी चाहिए होती है. ये गर्भावस्थ शिशु के सामान था जिससे उम्मीद की जा रही थी की माँ की गोद में आते ही दौड़ पड़े .
सो उस वक़्त तो हम भी अपने शहर से दौड़ पड़े थे अगले शहर की ओर, क्योंकि वहां अभी असेम्ब्ली में बहस चालू हुई नहीं थी. पता चला आज एक विदेशी का गुर्दा प्रत्यारोपण चल रहा है. बड़ी ख़ुशी हुई मन को . चलो सही जगह पहुँच गए हैं. भगवान ने चाहा तो यहाँ काम बन जाएगा, हमारी आस बंधी थी.
हमने सोंचा था हम अपने शहर में छोड़ आये हैं, पर पता नहीं था हमारी किस्मत हमारे साथ ही चल रही थी! अभी तक तो दिल को सुकून देने जैसी कोई बात होती दिख नहीं रही थी.
हमारा इलाज़ तो शुरू हो गया था पहुँचते ही . गुर्दा दाता भी मिल गया था. पर ये तो वो ही शहर निकल गया जहां फलां डॉक्टर ने किसी गरीब का अप्पेंडिक्स हटाते वक़्त उसका एक गुर्दा भी निकाल लिया था. सो हमारी ज़िन्दगी में एक पहलू का और इज़ाफ़ा हो गया. हम और हमारे पति प्रेस कांफेरेंस और अख़बारों में फँस चुके थे. पतिदेव परेशान थे.
जब तक सारे मरीज़ और उनके परिवार डायलिसिस के बाद राजनैतिक गलियारों के भूल्भुलैये में चक्कर काट रहे थे तब तक असेम्ब्ली में बिल पारित हो गया. मुख्यमंत्री का दिया आश्वासन कोई काम नहीं आया . अंत में जाकर उस शहर के अस्पतालों की कहानी ये ठहरी कि वो विदेशी ही आखिरी किस्मत वाला निकला उस शहर में.
अब हम दोनों परेशान थे, आगे क्या किया जाए. घर में बच्चे घबरा रहे थे. उनसे भी ज्यादा शायद मेरे मम्मी पापा. रोज़ फ़ोन पर घर वापस आने की सलाह मिल रही थी. हम रोते अकेले में तो पब्लिक बूथ में पतिजी टैक्सी रुकवा देते और घर का नंबर लगा देते थे. हम आँसू पोंछते और फ़ोन पे कहते, "सब कुछ बढ़िया है. हमें और कोशिश करनी है." पापा मम्मी चुप हो जाते.
हमारे पति में एक बहुत बड़ा गुण है. वो मेरी अनकही बातें भी समझ लेते हैं . अगले दिन उन्होंने कहा "अगला डायलिसिस अकेले संभाल सकोगी?"
कायदे से झेलना तो मुझे ही पड़ता था. पर शायद इन्होने मुझसे बहुत ज्यादा झेला है. मैं समझती हूँ किसी अपने को तकलीफ में देखने का दुःख ज्यादा त्रासदीपूर्ण होता है. उसे झेलना काफी मुश्किल होता है. मेरा आश्वासन पा इन्होने उसी शाम तीसरे शहर का रुख किया. एक बार फिर उम्मीदें बंधी थीं .
दो दिनों बाद हमने ये शहर रात के अँधेरे में चुपके से छोड़ा था. क्या बताते डॉक्टर को? यहाँ इलाज नहीं करवाना है .सो अस्पताल के कागज़ वहीँ रहे. नए शहर से बड़ा आश्वासन मिला था. हम इसे सिर्फ कुछ कागजों के लिए खोना नहीं चाहते थे.
यहाँ से निकलने के बाद यहाँ फिर से वापस आने का रास्ता बंद हो जाने वाला था. यदि वापस आना पड़ा तो काफी जवाब तलबी होगी हमारी.क्योंकि कोई विश्वास नहीं करता हमारे खतरा लेने की क्षमता पर. काफी सहमें हुए थे हम. अपने साथ हमारे संभावित जीवन दाता यानि गुर्दा दाता को भी ले चले. अब अगला शहर हमारा आखिरी सहारा था. अगर तीसरे शहर से भी खाली हाथ लौटना पड़ा तो? हमारा फिर कुछ नहीं होगा, हमने समझ लिया था . घर लौटेंगे खाली हाथ.
जब जनता के रक्षकों को इतनी कम जानकारी में इतने बड़े बड़े निर्णय लेने होतें हैं तो ऐसा ही होता है. एक के बाद एक हर प्रदेश में फरमान जारी हो रहा था "सिर्फ कैडेवर ट्रांसप्लांट हो पायेगा या रिश्तेदारी में.!" ......
उन्होंने सिर्फ हुक्म नामा ज़ारी किया. देश में क्या तैयारी थी कैडेवर ट्रांसप्लांट की? शून्य!! कोई फर्क नहीं पड़ता !
तो अभी जो हज़ारों लोग अस्पताल में उम्मीद लगाए बैठें हैं ,उनका क्या होगा? जवाब तो है.
" कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है! "
तो चलो हम भी मन ही मन तैयार हो रहे थे खो जाने के लिए.
यह दूसरी बात होगी कि जब उन्हें अपनी गलती का एहसास होगा तो उस आदेश को वापस कर देंगे.
भाई मेरे, सब समय की बात होती है. आप सिर्फ गलत समय में थे. और ये ही असली सच है. या तो आपका समय सही है या आपका समय गलत है. यह ज्ञान हमने अपने बाल पका के हासिल किया है. पर उस वक़्त हमारे बाल पके नहीं थे. हमें काफी कम ज्ञान था.
इस तीसरे अस्पताल में माहौल बढ़िया था. लगता था मनो हम सफल हो जायेंगे. पर अब हम आश्वस्त थे हमारी किस्मत हमारे साथ चल रही थी. पता नहीं ये क्या गुल खिलाने वाली थी.
अपने साथी के बिना तो हमारी कोई बिसात ही नहीं थी. सो जी जान से हम अपने जीवन दाता को लिए घूम रहे थे. उसकी हर इच्छा हमारे लिए खुदा का हुक्म था. एक सुबह उसने कहा "हमारी माँ बीमार है अब हम तो अपने गाँव चले. " पोस्ट ऑफिस से जब उसने अपनी माँ को ढेर सारे पैसे भेजे तो उसने चैन की सांस ली और हमने भी.
दूसरे ही सुबह डॉक्टर ने कहा, "कल से यहाँ भी असेम्ब्ली में बहस शुरू होगी. अब दिल्ली एम्स से रिपोर्ट का इंतज़ार नहीं कर सकते. आज पेशेंट को आखिरी डायलिसिस में डालना होगा. कल ऑपरेशन करेंगे .नया गुर्दा लगायेंगे."
हमने अपने सितारों को धन्यवाद दिया. सबसे पहले इसलिए की हमारा गुर्दा दाता हमारे साथ था, अपने गाँव में नहीं. पर मन विश्वास नहीं कर पता था की वो घड़ी पहुँच रही थी, जो हमें सबों के बीच रहने के लिए कुछ और बरसों की मोहलत देने वाली थी .पर अंग्रेजी में एक कहावत है ना?
"There could be a thousand slips between the cup and the lips." या ऐसा ही कुछ?
सो हम दोनों का पूरा परिवार दम साधे हुए था. टिकट उन्होंने बुक करवा लिए थे. और लोग पहुँचने भी लगे थे अस्पताल.
डायलिसिस के बाद हमारे पास मनः चिकित्सक आये . जानना चाहते थे की हम किस मनः स्थिति में थे?
हम नहीं समझते की किसी भी ऑपरेशन के पहले कोई पेशेंट इतना खुश हो सकता है की जश्न मनाने का दिल करे! ......सिवाय प्रत्यारोपण पेशेंट के ...... लगता था मानो लौटरी निकल गयी हो......
सो हमने कहा "उम्दा मनः स्थिति में हैं डॉक्टर साहब."
सच पूछा जाए तो डॉक्टर साहब को ऑपरेशन करना है वो जाने . हमें थोड़े ही करना है. सब सही रहा तो इस ऑपरेशन से निवृत्ति पाने के बाद दर्द ख़ुशी ख़ुशी झेल लेंगे.अभी जिस स्थिति में हैं उससे और बुरा क्या हो सकता है ?
सचमुच जीवन क्या नहीं सिखाता. वरना खून की एक बूँद देख कर चीखने वाले हम, पता नहीं कब और कैसे इतने सयाने हो गए थे .
ऑपरेशन हुआ और हम ख़ास से "आप के समान" आम जनता में शामिल हो गए. पर शायद दिल से आम होने में काफी वक़्त लगा. वर्ना आपने हमारा ये ब्लॉग बहुत पहले पढ़ा होता.
इन मरीजों की ज़िन्दगी की डोर औरों के हाथों में है. वे जानते हैं कि उनकी ज़िन्दगी किसी और के दान पर निर्भर है. और दान माँगा नहीं, दिया जाता है. हमें इन मरीजों के प्रति अत्यंत संवेदनशीलता बरतनी चाहिए, सबों से ये हमारी दिली गुज़ारिश है.
इस ब्लॉग से हम अपने जीवन दाता को फिर से एक बार धन्यवाद् देना चाहते हैं. वो नहीं जानता उसने हमारे लिए क्या किया है! इस ब्लॉग को लिखते वक़्त हमारी नतनी हमारे पास बैठी खेल रही है, जो हमने एक समय, कभी सपने में भी उम्मीद नहीं की थी.
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