Saturday, December 31, 2016
Saturday, October 8, 2016
श्रापिता
श्रापिता
उस अप्रतिम सुन्दरी का
सौन्दर्य ही था उसका अभिशाप ,
जीवन का ये निष्ठुर सत्य,
अभावों में पली उस अपरूपा ने
कम उम्र में था जान लिया।।
माँ का हाथ छूटा नहीं, पिता ने
सौतेली माँ का थमा दिया।
किताबें हाथों से छिन गईं,
माँ ने चौका बर्तन थमा दिया।
प्यार को तरसती ही रही वो ,
माँ की ज़ुल्में भी सहती रही,
सौतेली बहनों की सेवा में
जूझती वो नादान,
समझ ना पाती माँ की बेरुख़ी ।
था अप्रतिम सौन्दर्य ही उसका अभिशाप।
उसका सा रूप उसकी
सौतेली बहनों ने ना पाया,
माँ की नज़रों में यही था
उस श्रापिता का गुनाह।
सौतेली माँ के कहने पर, हाय!
जब एक अधेड़ के पल्ले
पिता ने उसे बाँध दिया,
उसने चूँ भी ना की ।
ना आँसू बहाये, ना दुहाई ही दी ।।
ना हिम्मत थी, ना पिता की हमदर्दी।
सो चल पड़ी उसके पीछे,
जिसके पल्ले पिता ने बाँध दिया।
उसके सौन्दर्य का ताप
उसका पति झेल न पाता था।
प्यार की उसकी लालसा
जल्दी ही भस्मीभूत हुई।
उस श्रापिता को पति से
सिर्फ़ निष्ठुरता ही मिली।
हर मार पति का उसने झेला
आह! उसने चूँ भी ना की,
ना आँसू बहाये, ना दुहाई ही दी।
समय बीता और उसके गोद में
एक नन्हीं परी आई
अपनी कली को पनपते देख
जीने की इच्छा प्रगाढ़ हुई।
पति की भीषण प्रताड़ना
जब और ना सहन हुई।
हिम्मत कर एक रात निकल पड़ी वो
अपनी नन्ही बच्ची को गोद लिये।।
अाह रे अभिशापित क़िस्मत!
उसने पर दामन ना छोड़ा था !
बस्ती की गन्दी नज़रों से बच्ची को
बचाने में वो हलकान हुई जाती थी।
बेटी की ज़िन्दगी उस बस्ती में
अभिशप्त ना हो जाये;
ये चिन्ता उसे सताये जाती थी।
सौन्दर्य का पिटारा थी उसकी बेटी,
गुलाब की पँखुड़ियों की तरह खिली हुई,
दिन पर दिन निखरती हुई;
मानो चौदहवीं का चाँद हो!
ऐसे में जब एक गबरू जवान का
रिश्ता आया, ठुकरा ना पाई वो!
बेटी पिया की दुलारी, राजरानी बनेगी!
इस मोह में बेटी के कम उम्र का
ख़्याल भी ज़हन में दफ़ना दिया।
बड़ी धूम से की उसने
अपनी बेटी की शादी।
लुटा दी ज़िन्दगी भर की
कमाई उसने ख़ुशी ख़ुशी ,
बेटी की ख़ुशी ख़रीदने में ।
बर्तन मलती रही हमारे घरों में,
जूठे बर्तन साफ़ करते रही
अपनी राम कहानी सुनाते सुनाते
गुनगुनाया करती थी वो।
नाता ना था उससे मेरा कोई
फिर भी बंधी थी उससे मैं ,
अनजाने किसी डोर से।
उस मनहूस दिन जब छाती पीटती
वो रो रो दुहरी हुई जाती थी।
उसके आँसू मेरे आँखों से भी झरते थे ।
भूल नहीं पाती मैं वो रुलाई,
उसका वो प्रलाप-
यह रिश्ता ला कर उसकी
सौतेली माँ ने , उससे ये कैसा
जीवन भर का बैर निकाला था?
क्यों कर सौतेली माँ के झाँसे में आई थी?
हाय रे क़िस्मत का ये कैसा खेल?
अपने हाथों ही अपनी बेटी की
ज़िन्दगी में तबाही मचाई थी?-
लुटेरा था उसका दामाद ,
वो बैंक लूटा करता था।
आज जेल में दामाद उसका
पुलिस के डंडे खाता था।
विकट समस्या थी उसके समकक्ष ,
बेटी ससुराल में प्रताड़ित ना हो सो
उसे थाने में मूल्य चुकाना था।
अपनी बेटी को दलदल से
निकालने की लालसा में ,
सबों से उधार लेते जाती थी ।
फिर एक दिन वो आया
जब उसने आना बन्द कर दिया।
मास बीते बरस बीत गये।।
और अब हम दूसरे शहर में थे।
बरसों बाद पुराने शहर की
पड़ोसन से मिलना हुआ था।
रहा न गया सो उसके बारे पूछ बैठी।
उनसे मालूम पड़ा!
वो है तो ,पर फिर भी नही है ,
बेटी के ग़म में पगला गई है वो।
बहुत कुछ झेला था उसने ज़िन्दगी में
लेकिन झेल न पाई अपनी बेटी का झुलसा मृत शरीर।
जिसे ससुराल वालों ने जला दिया।।
हाँ हाँ !
मैंने देखा था उसे
अपने पुराने स्टेशन में !
उस विक्षिप्त भिखारन को मैं
कैसे न पहचान पाई थी उस दिन?
बस्ती की गन्दी नज़रों से बच्ची को
बचाने में जो हलकान हुई जाती थी,
बेटी की ज़िन्दगी उस बस्ती में
अभिशप्त ना हो जाये,
जिसे ये चिन्ता सताती थी।
वो कारण बनी अपनी बेटी के अन्त का?
जीवन के अन्तिम क्षणों तक,
श्रापित ही रही उसकी बेटी भी ।
सगी माँ की एक भूल ने ही
उसकी ज़िन्दगी को भी भस्मित किया।
काश ...
समय पीछे जा पाता !
बेटी की कच्ची उम्र में
शादी करने से उसे मैं रोक लेती!
समय बीता जाता है पर
अफसोसों का पुलिंदा घटता नहीं।
इन पुलिंदों के भार तले
ज़िन्दगी हलकान हुई जाती है।
- [
Sunday, January 17, 2016
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